Thursday, May 7, 2020

तत्वदर्शी सन्त की पहचान


पूर्ण सन्त के लक्षण
पूर्ण संत सर्व वेद-शास्त्रों का ज्ञाता होता है।
दूसरे वह मन-कर्म-वचन से यानि सच्ची श्रद्धा से केवल एक परमात्मा समर्थ की भक्ति स्वयं करता है तथा अपने अनुयाईयों से करवाता है।
तीसरे वह सब अनुयाईयों से समान व्यवहार (बर्ताव) करता है।
चौथे उसके द्वारा बताया भक्ति
कर्म वेदों में वर्णित विधि के अनुसार होता है।
पूर्ण_सन्त के बिना मुक्ति नही हो सकती है।

संत गरीब दास जी कहते हैं-
साध हमारे सगे हैं, ना काहू को दोष।
जो सारनाम बतावहीँ, सो साधु सिर पोष।।
कृपया समय रहते पूर्ण संत की शरण में आएं।
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
जैसे पौधे को मूल की ओर से पृथ्वी में रोपण करके मूल की सिंचाई की जाती है तो
उस मूल परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) की पूजा से पौधे की परवरिश होती है। सब तना, डार,
शाखाओं तथा पत्तों का विकास होकर पेड़ बन जाता है। छाया, फल तथा लकड़ी सर्व प्राप्त
होती है जिसके लिए पौधा लगाया जाता है। यदि पौधे की शाखाओं को मिट्टी में रोपकर
जड़ों को ऊपर करके सिंचाई करेंगे तो भक्ति रूपी पौधा नष्ट हो जाएगा। इसी प्रकार एक
मूल (परम अक्षर ब्रह्म) रूप परमेश्वर की पूजा करने से सर्व देव विकसित होकर साधक को
बिना माँगे फल देते रहेंगे।(जिसका वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 15 में भी है) इस
प्रकार ज्ञान होने पर साधक का प्रयोजन उसी प्रकार अन्य देवताओं से रह जाता है जैसे
झील की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाशय में रह जाता है। छोटे जलाशय पर आश्रित को ज्ञान
होता है कि यदि एक वर्ष बारिश नहीं हुई तो छोटे तालाब का जल समाप्त हो जाएगा। उस
पर आश्रित भी संकट में पड़ जाऐंगे। झील के विषय में ज्ञान है कि यदि दस वर्ष भी बारिश
न हो तो भी जल समाप्त नहीं होता। वह व्यक्ति छोटे जलाशय को छोड़कर तुरंत बड़े
जलाशय पर आश्रित हो जाता है। भले ही छोटे जलाशय का जल पीने में झील के जल जैसा
ही लाभदायक है, परंतु पर्याप्त व चिर स्थाई नहीं है। इसी प्रकार अन्य देवताओं (रजगुण
ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी) की भक्ति से मिलने वाले स्वर्ग का सुख
बुरा नहीं है, परंतु क्षणिक है, पर्याप्त नहीं है। इन देवताओं तथा इनके अतिरिक्त किसी भी
देवी-देवता, पित्तर व भूत पूजा करना गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा
अध्याय 9 श्लोक 25 में मना किया है। इसलिए भी इनकी भक्ति करना शास्त्र विरूद्ध होने
से व्यर्थ है जिसका गीता अध्याय 16 श्लोक 23.24 में प्रमाण है। कहा है कि शास्त्र विधि को
त्यागकर मनमाना आचरण करने वालों को न तो सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती
है और न ही परम गति यानि पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात् व्यर्थ प्रयत्न है।(गीता
अध्याय 16 श्लोक 23)

कबीर,
एकै साधै सब सधै, सब साधें सब जाय। माली सींचे मूल कूँ, फलै फूलै अघाय।।
 पूर्ण_संत से नामदान लेकर परमात्मा की भक्ति करें तब ही इस लोक में शांति मिल सकती है और मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
सच्चा सतगुरु वो है जो हमारे सभी धर्मों के सदग्रन्थों से प्रमाणित ज्ञान व सतभक्ति देकर जन्म-मृत्यु से छुटकारा दिला दे।
सद्ग्रन्थों पर आधारित भक्ति केवल संत रामपाल जी महाराज ही बताते हैं।
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